शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
अब अकेले ही चले जाएँगे इस मंज़िल से हम
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उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
रौशन है मेरा नाम बड़ा नामवर हूँ मैं
रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा