शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
रह जाएँगे सहर को दुश्मन भी हाथ मल कर
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हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई