'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
चले हो चाँदनी शब में उन्हें बुलाने को
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'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
सुकूँ-पसंद जो दीवानगी मिरी होती