'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
हम अपना दाग़ दिखाते रहे ज़माने को
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मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह