'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
कि सुना किए सितारे मिरा रात भर फ़साना
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इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर