'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
सितारे आसमाँ से देखने को आए जाते हैं
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जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी