पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
सुनते हैं कि शबनम के क़तरे फूलों को निखारा करते हैं
Rahat Indori
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ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
तौबा कीजे अब फ़रेब-ए-दोस्ती खाएँगे क्या
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने