नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है
कि अब हम से कोई भी रौशनी देखी नहीं जाती
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पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी