न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
निगाह-ए-शौक़ तो बे-बाल-ओ-पर नहीं होती
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अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा