मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
आज तक ये आलम है रौशनी से डरता हूँ
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वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
कौन से थे वो तुम्हारे अहद जो टूटे न थे
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली