मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
'क़मर' बज़्म-ए-अंजुम की मुझ को मयस्सर सदारत नहीं है तो फिर और क्या है
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ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
इस लिए आरज़ू छुपाई है
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार