कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
न जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को
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मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना