इस लिए आरज़ू छुपाई है
मुँह से निकली हुई पराई है
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आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा