हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
क्यूँ बर्क़ ने जलाया मिरा आशियाँ न पूछ
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बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
सुकूँ-पसंद जो दीवानगी मिरी होती
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली