बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
घटा घटा के 'क़मर' को हिलाल कर दोगे
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अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का
इस लिए आरज़ू छुपाई है
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
कौन से थे वो तुम्हारे अहद जो टूटे न थे
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी