अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
दो आलम जगमगा उट्ठेंगे दोहरी चाँदनी होगी
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अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
इस लिए आरज़ू छुपाई है
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा