अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
जब कश्ती डूबने लगती है तो बोझ उतारा करते हैं
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दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
सोज़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ से दिल को बचाए कौन
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
सुकूँ-पसंद जो दीवानगी मिरी होती
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी