Ghazals of Qamar Jalalvi
नाम | क़मर जलालवी |
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अंग्रेज़ी नाम | Qamar Jalalvi |
जन्म की तारीख | 1887 |
मौत की तिथि | 1968 |
जन्म स्थान | Karachi |
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
तौबा कीजे अब फ़रेब-ए-दोस्ती खाएँगे क्या
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
सोज़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ से दिल को बचाए कौन
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
कौन से थे वो तुम्हारे अहद जो टूटे न थे
करते भी क्या हुज़ूर न जब अपने घर मिले
करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम