क़मर जलालवी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का क़मर जलालवी (page 2)
नाम | क़मर जलालवी |
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अंग्रेज़ी नाम | Qamar Jalalvi |
जन्म की तारीख | 1887 |
मौत की तिथि | 1968 |
जन्म स्थान | Karachi |
ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
इस लिए आरज़ू छुपाई है
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
तौबा कीजे अब फ़रेब-ए-दोस्ती खाएँगे क्या
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
सोज़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ से दिल को बचाए कौन
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना