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ये दर्द-ए-हिज्र और इस पर सहर नहीं होती - क़मर जलालाबादी कविता - Darsaal

ये दर्द-ए-हिज्र और इस पर सहर नहीं होती

ये दर्द-ए-हिज्र और इस पर सहर नहीं होती

कहीं इधर की तो दुनिया उधर नहीं होती

न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती

निगाह-ए-शौक़ तो बे-बाल-ओ-पर नहीं होती

सताए जाओ नहीं कोई पूछने वाला

मिटाए जाओ किसी को ख़बर नहीं होती

निगाह-ए-बर्क़ अलावा मिरे नशेमन के

चमन की और किसी शाख़ पर नहीं होती

क़फ़स में ख़ौफ़ है सय्याद का न बर्क़ का डर

कभी ये बात नसीब अपने घर नहीं होती

मनाने आए हो दुनिया में जब से रूठ गया

ये ऐसी बात है जो दरगुज़र नहीं होती

फिरूंगा हश्र में किस किस से पूछता तुम को

वहाँ किसी को किसी की ख़बर नहीं होती

किसी ग़रीब के नाले हैं आप क्यूँ चौंके

हुज़ूर शब को अज़ान-ए-सहर नहीं होती

ये माना आप क़सम खा रहे हैं वा'दों पर

दिल-ए-हज़ीं को तसल्ली मगर नहीं होती

तुम्हीं दुआएँ करो कुछ मरीज़-ए-ग़म के लिए

कि अब किसी की दुआ कारगर नहीं होती

बस आज रात को तीमारदार सो जाएँ

मरीज़ अब न कहेगा सहर नहीं होती

'क़मर' ये शाम-ए-फ़िराक़ और इज़तिराब-ए-सहर

अभी तो चार-पहर तक सहर नहीं होती

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In Hindi By Famous Poet Qamar Jalalabadi. is written by Qamar Jalalabadi. Complete Poem in Hindi by Qamar Jalalabadi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.