ख़ुद की ख़ातिर न ज़माने के लिए ज़िंदा हूँ
ख़ुद की ख़ातिर न ज़माने के लिए ज़िंदा हूँ
क़र्ज़ मिट्टी का चुकाने के लिए ज़िंदा हूँ
किस को फ़ुर्सत जो मिरी बात सुने ज़ख़्म गिने
ख़ाक हूँ ख़ाक उड़ाने के लिए ज़िंदा हूँ
लोग जीने के ग़रज़-मंद बहुत हैं लेकिन
मैं मसीहा को बचाने के लिए ज़िंदा हूँ
रूह आवारा न भटके ये किसी की ख़ातिर
सारे रिश्तों को भुलाने के लिए ज़िंदा हूँ
ख़्वाब टूटे हुए रूठे हुए लम्हे वो 'क़मर'
बोझ कितने ही उठाने के लिए ज़िंदा हूँ
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