यक़ीं की हद को जा पहुँचा जो पहले था गुमाँ अपना
यक़ीं की हद को जा पहुँचा जो पहले था गुमाँ अपना
वही मुजरिम निकल आया जो ठहरा राज़-दाँ अपना
मिरी हस्ती का अब एहसास ख़ुद मुझ में नहीं बाक़ी
दर-ओ-दीवार से मैं पूछता हूँ ख़ुद निशाँ अपना
दयार-ए-ग़ैर में उम्मीद वो भी दिल-नवाज़ी की
तसल्ली दिल को मिल जाती जो होता हम-ज़बाँ अपना
तुम्हारे हिज्र में जानाँ ये कैसा हाल है मेरा
न ज़ात-ए-ला-मकाँ अपनी न इमकान-ए-मकाँ अपना
है मक़्तल में मिरी गर्दन पे ख़ंजर उस परी-वश का
यही था मश्ग़ला उस का यही था इम्तिहाँ अपना
तुझे सहरा-नवर्दी से 'क़मर' कितनी मोहब्बत है
जला डाला है ख़ुद हाथों से अपने आशियाँ अपना
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