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यक़ीं की हद को जा पहुँचा जो पहले था गुमाँ अपना - क़मर अब्बास क़मर कविता - Darsaal

यक़ीं की हद को जा पहुँचा जो पहले था गुमाँ अपना

यक़ीं की हद को जा पहुँचा जो पहले था गुमाँ अपना

वही मुजरिम निकल आया जो ठहरा राज़-दाँ अपना

मिरी हस्ती का अब एहसास ख़ुद मुझ में नहीं बाक़ी

दर-ओ-दीवार से मैं पूछता हूँ ख़ुद निशाँ अपना

दयार-ए-ग़ैर में उम्मीद वो भी दिल-नवाज़ी की

तसल्ली दिल को मिल जाती जो होता हम-ज़बाँ अपना

तुम्हारे हिज्र में जानाँ ये कैसा हाल है मेरा

न ज़ात-ए-ला-मकाँ अपनी न इमकान-ए-मकाँ अपना

है मक़्तल में मिरी गर्दन पे ख़ंजर उस परी-वश का

यही था मश्ग़ला उस का यही था इम्तिहाँ अपना

तुझे सहरा-नवर्दी से 'क़मर' कितनी मोहब्बत है

जला डाला है ख़ुद हाथों से अपने आशियाँ अपना

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In Hindi By Famous Poet Qamar Abbas Qamar. is written by Qamar Abbas Qamar. Complete Poem in Hindi by Qamar Abbas Qamar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.