हर शख़्स है इश्तिहार अपना
हर चेहरा किताब हो गया है
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Habib Jalib
Wasi Shah
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दिल बे-तब-ओ-ताब हो गया है
तिरी बेवफ़ाई के बाद भी मिरे दिल का प्यार नहीं गया
घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा
तू अपने फूल से होंटों को राएगाँ मत कर
दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था
बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
पिया करते हैं छुप कर शैख़ जी रोज़ाना रोज़ाना
ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो