ये वो बस्ती ही नहीं
ज़िंदगी तू मुझे किस मोड़ पे ले आई है
ख़्वाब खुलते थे जहाँ बर्फ़ वहाँ छाई है
सौ दरीचे हैं मगर शम्अ किसी पर भी नहीं
चाँद निकले मिरी रातों का मुक़द्दर भी नहीं
क्या करूँ क्या न करूँ हाथ में पत्थर भी नहीं
शीश-महलों को कोई ग़म भी नहीं डर भी नहीं
लोग गूँगे हैं बयाबाँ में अज़ाँ कैसे हो
लोग क़ातिल हैं इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ कैसे हो
लोग पत्थर हैं तो एहसास-ए-ज़ियाँ कैसे हो
किस को फ़ुर्सत है जो पूछे कि मियाँ कैसे हो
रात जब ख़त्म हुई थी तो सहर लगती थी
रौशनी राहगुज़र राहगुज़र लगती थी
ज़िंदगी कूचा-ए-जानाँ का सफ़र लगती थी
अपनी मंज़िल कहीं जन्नत के उधर लगती थी
कुछ भी आँखों में नहीं अश्क-ए-नदामत के सिवा
कुछ भी दामन में नहीं दाग़-ए-मलामत के सिवा
कुछ भी चेहरे पे नहीं गर्द-ए-मसाफ़त के सिवा
अपनी दूकान में सब कुछ है मोहब्बत के सिवा
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