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घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे - क़ैसर-उल जाफ़री कविता - Darsaal

घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे

घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे

लोग दरवाज़ों से निकले कि मुहाजिर ठहरे

दिल के मदफ़न पे नहीं कोई भी रोने वाला

अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे

इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही

कौन जाने कि कोई शर्त-ए-सफ़र फिर ठहरे

पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं

उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफ़िर ठहरे

ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है

क्या पड़ी है जो ये आँधी मिरी ख़ातिर ठहरे

शाख़-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं

वो परिंदे जो अंधेरों के मुसाफ़िर ठहरे

अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे

चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे

तिश्नगी कब के गुनाहों की सज़ा है 'क़ैसर'

वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफ़िर ठहरे

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In Hindi By Famous Poet Qaisar-ul-Jafri. is written by Qaisar-ul-Jafri. Complete Poem in Hindi by Qaisar-ul-Jafri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.