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दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था - क़ैसर-उल जाफ़री कविता - Darsaal

दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था

दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था

मैं ऐसी तेग़ ले के उठा जिस में फल न था

क्या दर्द टूट टूट के बरसा है रात भर

इतना ग़ुबार तो मिरे चेहरे पे कल न था

पथराव कर रहा है वो ख़ुद अपनी ज़ात पर

क्या दिल के मसअले का कोई और हल न था

शाख़ें लदी हुई थीं तो पत्थर न था नसीब

पत्थर पड़े मिले तो दरख़्तों में फल न था

शब की हवा से हार गई मेरे दिल की आग

यख़-बस्ता शहर में कोई रद्द-ओ-बदल न था

अब एक एक हर्फ़ से छनती है रौशनी

तुम से मिले न थे तो ये हुस्न-ए-ग़ज़ल न था

'क़ैसर'! ज़मीर-ए-वक़्त को देखा कुरेद के

सदियाँ रखी थीं दोश पे मुट्ठी में पल न था

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In Hindi By Famous Poet Qaisar-ul-Jafri. is written by Qaisar-ul-Jafri. Complete Poem in Hindi by Qaisar-ul-Jafri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.