Ghazals of Qaisar-ul-Jafri

Ghazals of Qaisar-ul-Jafri
नामक़ैसर-उल जाफ़री
अंग्रेज़ी नामQaisar-ul-Jafri
जन्म की तारीख1926
मौत की तिथि2005
जन्म स्थानMumbai

ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए

ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया

ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ

यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ

ये ज़िंदगी है कि आसेब का सफ़र है मियाँ

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था

टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

तुम से दो हर्फ़ का ख़त भी नहीं लिक्खा जाता

तू अपने फूल से होंटों को राएगाँ मत कर

तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ

तिरी बेवफ़ाई के बाद भी मिरे दिल का प्यार नहीं गया

शहर-ए-ग़ज़ल में धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा

सारी दुनिया के तअल्लुक़ से जो सोचा जाता

सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा

पिया करते हैं छुप कर शैख़ जी रोज़ाना रोज़ाना

फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी

न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए

मुसाफ़िरों का कभी ए'तिबार मत करना

मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो

मायूसी की बर्फ़ पड़ी थी लेकिन मौसम सर्द न था

मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था

काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा

इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा

इस दौर की पलकों पे हैं आँसू की तरह हम

हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख

घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में

घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे

डूबने वालो हवाओं का हुनर कैसा लगा

दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है

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