दाएरे और आसमान
हमारी सब लकीरें
दाएरों में घूमती हैं
हमारे सारे रस्ते
एक ही मेहवर की जानिब
लौट आते हैं
सुब्ह-दम अस्प-ए-ताज़ा की तरह
घर से निकल कर
दाएरों में दौड़ना
और दिन ढले
आख़िर उसी मरकज़ पे
वापस लौट आना ही
हमारी ज़िंदगी है
हमें बस एक जानिब
देखने का हुक्म सादिर है
हमारी सोच बीनाई मुक़द्दर
सब इन्ही रस्तों के क़ैदी हैं
हमें मालूम है
इन दाएरों की पार भी
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