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ढाते हैं अब वो ज़ुल्म-ओ-सितम कम बहुत ही कम - क़ैस जालंधरी कविता - Darsaal

ढाते हैं अब वो ज़ुल्म-ओ-सितम कम बहुत ही कम

ढाते हैं अब वो ज़ुल्म-ओ-सितम कम बहुत ही कम

या'नी है उन का लुत्फ़-ओ-करम कम बहुत ही कम

जिस राह में हैं रंज-ओ-अलम कम बहुत ही कम

उठते हैं उस पे मेरे क़दम कम बहुत ही कम

इस से मुराद ये तो नहीं दिल है मुतमइन

माना है मेरी आँख में नम कम बहुत ही कम

ऐ दोस्त और है तिरा दिल और ही ज़बाँ

अब तुझ को मुँह लगाएँगे हम कम बहुत ही कम

फ़र्द-ए-गुनाह देख के यारब सज़ा न दे

निय्यत मिरी है इस में रक़म कम बहुत ही कम

हक़-गो की बात बात को इज़हार-ए-हक़ समझ

खाए अगर ख़ुदा की क़सम कम बहुत ही कम

रिंदों के दम से शैख़ हुआ चाँद ईद का

आता है वा'ज़ करने को कम कम बहुत ही कम

अब फ़ाक़ा-मस्तियों से ये आदत सी हो गई

खाता हूँ रिज़्क़ की भी क़सम कम बहुत ही कम

साक़ी की चश्म-ए-मस्त की है बात ही कुछ और

है उस के आगे बादा-ए-जम कम बहुत ही कम

ऐ क़ैस अगर ज़मीन-ए-ग़ज़ल हो न संगलाख़

चलता है उस में पा-ए-क़लम कम बहुत ही कम

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In Hindi By Famous Poet Qais Jalandhari. is written by Qais Jalandhari. Complete Poem in Hindi by Qais Jalandhari. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.