ऐसा जीना भी क्या है मर मर के
ऐसा जीना भी क्या है मर मर के
वो जहाँ भी रहे रहे डर के
अब किसी तरह दिल नहीं लगता
घर में सब कुछ तो है सिवा घर के
साँस का बोझ अब नहीं उठता
जिस्म ख़ाली है धड़ बिना सर के
उस को जाने की कितनी जल्दी थी
बात सारी कही प कम कर के
जल्वा देखा लहू का उस ने जब
होश ही उड़ गए थे ख़ंजर के
रेत-ओ-साहिल में सुल्ह फिर न हुई
थक गई मौज इल्तिजा कर के
ज़ख़्म कुछ इस तरह से हँसते हैं
अश्क बहने लगे हैं नश्तर के
रास आया ग़म-ए-शनासाई
वार पहचान के थे ख़ंजर के
उस को नाराज़ होना आता है?
वारी जाऊँ मैं ऐसे तेवर के
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