ओस में भीगी हुई तन्हाइयों के जिस्म से
आ रही है तेरे पैराहन की ख़ुशबू इस तरह
नर्म ख़्वाबों के शबिस्तानों में लहराती हुई
गुनगुनाए रात की अल्हड़ जवानी जिस तरह
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कितने पाकीज़ा हैं नौ-ख़ेज़ जवानी के कलस
आज क्या देखा ख़लाओं के सुनहरे ख़्वाब में
हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में
सलीक़ा है मुझे तारों से लौ लगाने का
आरती हम क्या उतारें हुस्न-ए-माला-माल की
दूर पीपल की बूढ़ी शाख़ों में
तेरी ख़ुश-रंग चूड़ियाँ अब तक
गुफ़्तुगू क्यूँ न करें दीदा-ए-तर से बादल
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
रात की भीगी पलकों पर जब अश्क हमारे हँसते हैं
दुनिया सोचे शौक़ से सोचे आज और कल के बारे में
इस हक़ीक़त का हसीं ख़्वाबों को अंदाज़ा नहीं