न अहल-ए-मय-कदा ने मुस्कुरा कर बात की हम से
न तेरी ही जबीं से बे-रुख़ी के बल गए साक़ी
अगरचे बज़्म में सहबा भी थी मीना भी थी लेकिन
ख़ुद अपनी तिश्नगी की आग में हम जल गए साक़ी
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रू-ब-रू सीना-ब-सीना पा-ब-पा और लब-ब-लब
फिर बजे मेरे ख़यालों में सुनहरे कंगन
यूँ लहकता है तिरे नौ-ख़ेज़ ख़्वाबों का बदन
किस ने देखे होंगे अब तक ऐसे नए निराले पत्थर
देखो कि दिल-जलों की क्या ख़ूब ज़िंदगी है
नग़्मा नुमा
पथर
आज क्या देखा ख़लाओं के सुनहरे ख़्वाब में
सलीक़ा है मुझे तारों से लौ लगाने का
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में