दीदा-ए-दिल को यूँ नज़र आया
एक धुँदली सी याद का चेहरा
जैसे दुल्हन की माँग में मिट्टी
जैसे बेवा के हाथ में सहरा
Gulzar
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आज क्या देखा ख़लाओं के सुनहरे ख़्वाब में
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
हाथ जो बहर-ए-दुआ उठे हैं झुक जाएँगे
हम बिखर जाएँगे नग़्मों-भरे ख़्वाबों की तरह
नुक़ूश
जलती रात सुलगते साए
सलीक़ा है मुझे तारों से लौ लगाने का
पहले तो बहुत गर्दिश-ए-दौराँ से लड़ा हूँ
ऑटोग्राफ
ओस में भीगी हुई तन्हाइयों के जिस्म से
कौन कहता है कि बेनाम-ओ-निशाँ हो जाऊँगा
इल्तिमास