नज़्म
वो जवानी के नशे में लड़खड़ाती डोलती जाती हसीना
मैं हूँ इक पज़मुर्दा-ओ-पामाल सा
दरमांदगी के क़हर का मारा हुआ बेहिस मुसाफ़िर
जिस की नज़रों में फ़क़त उस के तआ'क़ुब की सकत बाक़ी बची है
फिर भी मेरे जिस्म के इक ज़िंदा और जावेद हिस्से में
ये धड़कने की सदा
उन की शाकी है
जो कहते हैं कि मेरा जिस्म ख़ाकी है
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