वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का
वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का
सूरज की ज़िद देखो ये नहीं ढलने का
मैं भी तलाश-ए-आब-ए-हवस में निकला हूँ
शोर सुना था इक चश्मे के उबलने का
अहल-ए-जुनूँ क्यूँ दश्त में आना छोड़ दिया
भूल गए फ़न नोक-ए-ख़ार पे चलने का
सुब्ह तलक इस शहर में जाने क्या हो जाए
रिश्ता ढूँढो रातों-रात निकलने का
याद-ए-यार का आ जाना भी ठीक सही
राज़ मगर गहरा है दिल के मचलने का
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