कुछ न कुछ अहद-ए-मोहब्बत का निशाँ रह जाए
कुछ न कुछ अहद-ए-मोहब्बत का निशाँ रह जाए
आग बुझती है तो बुझ जाए धुआँ रह जाए
दश्त-दर-दश्त उड़े मेरा ग़ुबार-ए-हस्ती
आब-बर-आब मिरा नाम-ओ-निशाँ रह जाए
मुंतज़िर कौन है किस का ये उसे क्या मालूम
उस की मंज़िल है वही जो भी जहाँ रह जाए
यूँ तो कहने को बहुत कुछ था ग़ज़ल में लेकिन
लुत्फ़ की बात वही है जो निहाँ रह जाए
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