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हर-चंद कि था हिज्र में अंदेशा-ए-जाँ भी - प्रेम कुमार नज़र कविता - Darsaal

हर-चंद कि था हिज्र में अंदेशा-ए-जाँ भी

हर-चंद कि था हिज्र में अंदेशा-ए-जाँ भी

आख़िर को तो हम से ही उठा बार-ए-गिराँ भी

इक गोशा-ए-दर रक्खा है महफ़ूज़ हमारा

इस वुसअत-ए-कौनैन में हम जाएँ जहाँ भी

मादूम भी हूँ अहल-ए-तमाशा की नज़र में

बिखरा है हर इक सम्त मगर मेरा निशाँ भी

कुछ कम न हुआ रिज़्क़ ख़ुदा तेरे गदा पर

हर चंद कि गलियों में उठा शोर-ए-सगाँ भी

काम आती है अक्सर तो यही ख़ाना-बदोशी

रखने को तो हम शहर में रखते हैं मकाँ भी

उस वक़्त अजब होता है तर्सील का आलम

लफ़्ज़ों को तरस जाते हैं जब अहल-ए-ज़बाँ भी

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In Hindi By Famous Poet Prem Kumar Nazar. is written by Prem Kumar Nazar. Complete Poem in Hindi by Prem Kumar Nazar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.