हर-चंद कि था हिज्र में अंदेशा-ए-जाँ भी
हर-चंद कि था हिज्र में अंदेशा-ए-जाँ भी
आख़िर को तो हम से ही उठा बार-ए-गिराँ भी
इक गोशा-ए-दर रक्खा है महफ़ूज़ हमारा
इस वुसअत-ए-कौनैन में हम जाएँ जहाँ भी
मादूम भी हूँ अहल-ए-तमाशा की नज़र में
बिखरा है हर इक सम्त मगर मेरा निशाँ भी
कुछ कम न हुआ रिज़्क़ ख़ुदा तेरे गदा पर
हर चंद कि गलियों में उठा शोर-ए-सगाँ भी
काम आती है अक्सर तो यही ख़ाना-बदोशी
रखने को तो हम शहर में रखते हैं मकाँ भी
उस वक़्त अजब होता है तर्सील का आलम
लफ़्ज़ों को तरस जाते हैं जब अहल-ए-ज़बाँ भी
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