मैं जब से सच को सच कहने लगा हूँ
जहाँ की आँख में चुभने लगा हूँ
उजाला बाँटने की ये सज़ा है
अन्हरिया चाँद सा घटने लगा हूँ
भरम रखना उन आँखों का कि जिन को
मैं रोशन-दान सा लगने लगा हूँ
मैं उस किरदार को अब जी सकूँगा
मैं उस किरदार पर मरने लगा हूँ
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दोनों जानिब क़ैद-शुदा इस ख़ुश-फ़हमी में रहते हैं
मंगल को बजरंग-बली से तेरा शुक्र मनाऊँ
ठोकरों से बिखर नहीं सकती
तेरी दौलत रह जाएगी तेरे घर चौबारों तक
नया अब सिलसिला जोड़ा न जाए
मिरी आँखों से हिजरत का वो मंज़र क्यूँ नहीं जाता
तीरगी की अपनी ज़िद है जुगनुओं की अपनी ज़िद
गोरख-धंधा हो जाऊँ क्या?
बच-बचा कर जब कहा तारीफ़ मैं कम पड़ गया
जब मुश्किल हालात लगे
तुम्हारी याद के मंज़र पुराने घेर लेते हैं