तुम्हें जफ़ा से न यूँ बाज़ आना चाहिए था
अभी कुछ और मिरा दिल दुखाना चाहिए था
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कौन गुमाँ यक़ीं बना कौन सा घाव भर गया
ख़िर्मन-ए-जाँ के लिए ख़ुद ही शरर हो गए हम
आवाज़ में आवाज़ मिलाते ही रहे हम
अदाकारी में भी सौ कर्ब के पहलू निकल आए
सानेहा नहीं टलता सानेहे पे रोने से
घर की जब याद सदा दे तो पलट कर आ जाएँ
अब हर्फ़-ए-तमन्ना को समाअत न मिलेगी
ज़िंदगी ने झेले हैं सब अज़ाब दुनिया के
दिल अगर कुछ माँग लेने की इजाज़त माँगता
ज़ख़्म दबे तो फिर नया तीर चला दिया करो
शहर तलब करे अगर तुम से इलाज-ए-तीरगी