इक सज़ा और असीरों को सुना दी जाए
यानी अब जुर्म-ए-असीरी की सज़ा दी जाए
Faiz Ahmad Faiz
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
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ख़ून से जब जला दिया एक दिया बुझा हुआ
घर की जब याद सदा दे तो पलट कर आ जाएँ
दिल अगर कुछ माँग लेने की इजाज़त माँगता
आवाज़ में आवाज़ मिलाते ही रहे हम
ख़िर्मन-ए-जाँ के लिए ख़ुद ही शरर हो गए हम
शहर तलब करे अगर तुम से इलाज-ए-तीरगी
ग़म से बहल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
चराग़ हूँ कब से जल रहा हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए
अदाकारी में भी सौ कर्ब के पहलू निकल आए
तुम्हें जफ़ा से न यूँ बाज़ आना चाहिए था
अब हर्फ़-ए-तमन्ना को समाअत न मिलेगी