घर की जब याद सदा दे तो पलट कर आ जाएँ
घर की जब याद सदा दे तो पलट कर आ जाएँ
काश हम अपनी ही ख़्वाहिश को मयस्सर आ जाएँ
है करामत मिरे दिल की तिरे नावक में नहीं
वार हो एक मगर ज़ख़्म बहत्तर आ जाएँ
गुफ़्तुगू आज तो दो टोक करेगा सूरज
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी शबिस्तान से बाहर आ जाएँ
शब को यलग़ार-ए-तफ़क्कुर से जो बच निकलूँ मैं
सुब्ह-दम ताज़ा ख़यालात के लश्कर आ जाएँ
इतनी सफ़्फ़ाक समाअत भी ग़ज़ब है कि जहाँ
बात पूरी भी न हो हाथों में पत्थर आ जाएँ
(526) Peoples Rate This