जामिद लम्हों के साए
चोला बदलने से
ख़सलत नहीं बदलती लोगो
तुम अपने सेह्हत-मंद जिस्म पर चाहे कितना ही
ग़ाज़ा मल लो
उस से रूह के ज़ख़्म कभी भर नहीं सकते
रूह की प्यास बुझाने के लिए
तुम्हें इन ही मिट्टी से उबलते हुए चश्मों की
ज़रूरत होगी एक दिन
ख़ुश्बू बन कर आकाश पर उड़ने वालों को भी
अबदी सुकून मिट्टी के ही बिस्तरों पे मिला करता है
वक़्त ठहर जाता है
जहाँ जामिद लम्हों के साए में
मिलते हैं दो प्यार-भरे दिल तख़्लीक़-ए-नौ का ख़ुमार लिए
वही सच है
वही तक़वे का असली जहाँ
वही है ख़ुदा का अज़ली मकाँ
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