शब-ए-वस्ल आज वो ताकीद करते हैं मोहब्बत से
अभी सो रहने दो कुछ रात गुज़रे तो जगा लेना
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तिरे अबरू पे बल आया तो होता
है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द
नाख़ुन का रंग सीना-ख़राशी से ये हुआ
जाता है कौन आप से जल्लाद की तरफ़
बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम
कुंदनी रंग का मैं कुश्ता हूँ
ग़ुंचे को है तिरे दहन की हिर्स
सुना है अर्श-ए-इलाही इसी को कहते हैं
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
कौन कहता है तुम अदा न करो
फट जाते हैं ज़ख़्म-ए-दिल-ए-बेताब के अंगूर