जो तबस्सुमों से हो गुल-फ़शाँ वही लब हँसी को तरस गए
जो तबस्सुमों से हो गुल-फ़शाँ वही लब हँसी को तरस गए
हमीं शहरयार-ए-हयात थे हमीं ज़िंदगी को तरस गए
ये अजीब सुब्ह-ए-बहार है कोई ज़िंदगी की किरन नहीं
हमीं ख़ालिक़-ए-मह-ओ-मेहर हैं हमीं रौशनी को तरस गए
ये चमन है कैसा चमन जहाँ तही-दामनी ही नसीब है
ये बहार कैसी बहार है कि कली कली को तरस गए
न करम न कोई इ'ताब है कोई इस अदा का जवाब है
कभी दोस्ती को तरस गए कभी दुश्मनी को तरस गए
वही मंज़िलों से भटक गए न जुनूँ के साथ जो चल सके
जो फ़रेब होश में आ गए रह-ए-आगही को तरस गए
है अजब नसीब भी इश्क़ का न वफ़ा मिली न जफ़ा मिली
तिरे इल्तिफ़ात की क्या ख़बर तिरी बे-रुख़ी को तरस गए
मैं 'पयाम' काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ मिरी गुमरही भी है बंदगी
कि फ़िदा-ए-का'बा-ओ-दैर भी मिरी काफ़िरी को तरस गए
(458) Peoples Rate This