सुनी हर बात अपने रहनुमा की
सुनी हर बात अपने रहनुमा की
यही इक भूल हम ने बार-हा की
हुई जो ज़िंदगी से इत्तिफ़ाक़न
वही भूल उस ने फिर इक मर्तबा की
मुझी में गूँजती हैं सब सदाएँ
मगर फिर भी है ख़ामोशी बला की
हर इक किरदार में ढलने की चाहत
मतानत देखिए बहरूपिया की
अज़ल के पेशतर भी कुछ तो होगा
कहाँ फिर हद मिलेगी इब्तिदा की
तलातुम हैं मिरे मेरी हैं लहरें
मुझे क्यूँ जुस्तुजू हो नाख़ुदा की
हमारे साथ हो कर भी नहीं है
शिकायत क्या करें उस गुम-शुदा की
हर इक आहट तिरी आमद का धोका
कभी तो लाज रख ले इस ख़ता की
सरापा हाए उस नाज़ुक बदन का
कोई तस्वीर जैसे अप्सरा की
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