रोता ही रहूँगा मुस्कुराने तो दो
दम भर के लिए सुकून पाने तो दो
उठ जाएगी ख़ुद रुख़-ए-तवक़्क़ो से नक़ाब
कुछ और फ़रेब खाने तो दो
Allama Iqbal
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बाँध कर कफ़न सर से यूँ खड़ा हूँ मक़्तल में
बहरा गोया
मौक़ा-ए-यास कभी तेरी नज़र ने न दिया
सख़्त-जाँ वो हूँ कि मक़्तल से सर-अफ़राज़ आया
होंटों को शराब अब पिला दे साक़ी
ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया
लज़्ज़त में ख़ुदी की खो गया है ज़ाहिद
मस्ती में नज़र चमक रही है साक़ी
जलते रहना काम है दिल का बुझ जाने से हासिल क्या
न जाने कह गए क्या आप मुस्कुराने में
कश्ती-ए-हयात खे सकूँगा क्यूँ-कर
सुना है उन के लब पर कल था ज़िक्र-ए-मुख़्तसर मेरा