बंद कमरे में हूँ और कोई दरीचा भी नहीं
बंद कमरे में हूँ और कोई दरीचा भी नहीं
किसी दस्तक का लरज़ता हुआ झोंका भी नहीं
तीरगी ओढ़ के आई है घटा की चादर
और फ़ानूस कोई आह का जलता भी नहीं
कल मिरे साए में सुस्ताई थी सदियों की थकन
आज वो पेड़ हूँ जिस पर कोई पत्ता भी नहीं
धूप के दश्त का दरपेश सफ़र है मुझ को
साथ देने को मगर कोई परिंदा भी नहीं
अपना ख़ूँ राह में फैलाईं लकीरों की तरह
आने वाले न कहीं नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं
(399) Peoples Rate This