सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
ज़ोफ़ सा कुछ आ गया ईमान में
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न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
अब कोई तिरा मिस्ल नहीं नाज़-ओ-अदा में
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
नए ग़म्ज़े नए अंदाज़ नज़र आते हैं