पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
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न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह
ज़बाँ है बे-ख़बर और बे-ज़बाँ दिल
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
मेरी इज़्ज़त बढ़ गई इक पान में
नर्गिसीं आँख भी है अबरू-ए-ख़मदार के पास
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में