पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह
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देखो तो ज़रा ग़ज़ब ख़ुदा का
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
मेरी इज़्ज़त बढ़ गई इक पान में
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
निकाली जाए किस तरकीब से तक़रीर की सूरत
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
ज़बाँ है बे-ख़बर और बे-ज़बाँ दिल
अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को